Tuesday 6 January 2015

राजेन्द्र कुमार- हर कोशिश है एक बग़ावत (कविता-संग्रह) / अंतिका प्रकाशन, ग़ाजियाबाद

प्रकाशित - Reviews, Vol I, Issue II

अनसुनी प्रार्थनाओं का ईश्वर
-        पंकज पराशर
हिंदी कविता में जब आत्ममुग्धता/आत्मप्रकाशन एक सुस्थापित-सा तथ्य बन गया हो, तब उन कवियों के आत्म-संकोच और विनम्रता की अनायास ही याद आती है, जिनकी कविता आज भारतीय साहित्य में क्लैसिक्स मानी जाती हैं। जिन मीर तक़ी मीर को उर्दू मेंख़ुदा--सुखन कहा जाता हैवे ख़ुद अपनी शायरी को लेकर इस हद तक विनम्र हैं कि कहते हैं, ‘मुझको शाइर कहो मीर, कि साहब मैंने/दर्द--ग़म कितने किये जम, सो दीवान किया दूसरी ओर तुलसी बाबा तो कोरे काग़ज पर लिखकर देने की बात करते हैं, ‘कबित बिबेक एक नहीं मोरे। त्रिलोचन जैसे आधुनिक और प्रगतिशील कवि तक विनम्रता से इस आत्म-स्वीकृति का प्रकटीकरण करते हैं, ‘तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी जिन तुलसीदास से मध्यकालीन तो छोड़िये, आधुनिक कवि तक भाषासीखता है, उस कवि के आत्म-संकोच की इंतहा देखिये कि कहता है-उसके भीतर कविता का कोई विवेक नहीं है! जिन मिर्ज़ा ग़ालिब की लोकप्रियता वक़्त बीतने के साथ-साथ लगातार बढ़ती ही जा रही है, वे अपने-आपको कहते हैं, ‘रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब/कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था इसके समानांतर समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य को देखें तो अपनी प्रतिभा और कविता को लेकर कवियों के भीतर अद्भुत रूप से (अति) ग़जब का आत्मविश्वास दिखाई देता है। ऐसे में यह प्रश्न सहज ही दिमाग़ में कौंधता है कि क्या आधुनिकता का आत्मविश्वास से कोई विशेष रिश्ता है या विनम्रता कोई मध्यकालीन मूल्य है? भारतीय क्लैसिक्स के रचयिताओं की विनम्रता के बरक्स समकालीन कवियों के अति-आत्मविश्वास को देखकर मैं बार-बारमुड़-मुड़ कर देखता हूँ। 

आत्म-प्रकाशन के इस दौर में जब दो-चार कविताएँ लिखते ही कवियों मेंसाहिबे-क़िताब बनने की आकांक्षा हिलोरें लेने लगती हैं, तब उन कवियों की याद बारहा आती है, जिन्होंने ता-उम्र लिखकर भी बमुश्किल एक दीवान किया! हालांकि इस तथ्य का सरलीकरण नहीं किया जा सकता कि कम लिखना उत्कृष्ट लिखने की गारंटी है या अधिक लिखना स्तरहीनता की निशानी। असल में यह भारतीय काव्य परंपरा में मौज़ूद उस प्रवृत्ति की ओर संकेत है, जिसमें आत्मप्रकाशन और आत्मश्लाघा को ठीक नहीं समझा जाता। इसलिए किसी भी परिस्थिति में सामाजिक और नैतिक मूल्यों में अटूट आस्था रखने वाले कवियों में आत्म-विज्ञापन से सायास बचने की प्रवृत्ति पायी जाती है। आज भी जिन कवियों की कविता मानवीय मूल्यों में गहरी आस्था के साथ संभव होती हैं, वे आज के बाज़ारवादी दौर में भी आत्म-विज्ञापन के मामले में संकोच बरतते हैं। परंपरा की सकारात्मक और ग्राह्य चीजों की याद यहां इस वज़ह से भी बारहा आई, क्योंकि पिछले दिनों राजेन्द्र कुमार का दूसरा कविता-संग्रहहर कोशिश है एक बग़ावत सिरहाने मीर की तरह मेरे सिरहाने रहा। इस कविता-संग्रह की कई कविताओं, कई अविस्मरणीय काव्य-पंक्तियों ने सोते-जागते मुझे अपने से अलग होने दिया। इस वज़ह से उन कविताओं के बारे में मेरे लिए तभी कुछ कह पाना संभव हो पाया, जब उन कविताओं से मुक्त होकर तटस्थता/वस्तुनिष्ठता बरतने की स्थिति में पाया।   

लिखने और छपने की हड़बड़ी के इस दौर में यह जानना थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि उनका पहला कविता-संग्रहऋण गुणा ऋण सन् 1978 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा कविता-संग्रह आने में पूरे पैंतीस वर्ष लग गए! वह भी शायद संभव होता यदि कवि शैलेय कवि की उदासनीनता और अतिशय आत्मसंकोच से जूझते हुए इन कविताओं को तरतीब देकर क़िताब की शक्ल देते। इस संकलन के बारे में शैलेय कहते हैं, ‘कोई कवि लिखता निरंतर रहे, लेकिन अपनी कविताओं के प्रति अपने संकोच से उबरना उसके लिए इतना मुश्किल हो कि पहले संग्रह के बाद, इतने वर्षों तक उसका कोई दूसरा संग्रह हो-आत्मप्रकाशन की हड़बड़ी के इस दौर में ऐसाआत्मसंकोच मुझ जैसों के लिए एक विरल अनुभव है। पाठकों के सूचनार्थ उन्होंने बताया है किरचना-काल की दृष्टि से इस संग्रह की कविताएँ वर्ष 1963 से 2011 तक के विस्तार को घेरती हैं। समय के इतने विस्तार में फैली इस संग्रह की कविताओं में अलग-अलग समय में कवि के बदलते मानस और बदलती हुई राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर उनकी समझ को भी लक्षित किया जा सकता है।

जब वे कहते हैं, हर सार्थक शुरुआत/ प्रकृति से ही बाग़ी होती आई है, (पृ.15) तो उन कवियों की तरह विचारों की क्रांतिकारिता को व्यक्त करने के लिए वे ऐसा नहीं कहते, जिनकी तमाम आस्था, विश्वास और मूल्य महज काव्य-मुहावरों तक सीमित रह जाते हैं। वे तो गिरी पड़ी हर चीज़ को उठाकर देखते हैं-अपने भीतर बची रह गई चीजों में तमाम अनकही व्यथा, अनदिखी उमंगों और अनछलके आंसू को ढूंढ़ने का प्रयत्न करते हैं। कवि के अनुसार हर सार्थक शुरुआत प्रकृति से ही बाग़ी होती है, लिहाजा शुरुआत के बाद होने वाले अंत और उसके परिणाम की सफलता-असफलता को लेकर उनके विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं, ‘कोशिश-/ हाँ, कोशिश ही तो कर सकता हूँ/ हर कोशिश है एक बग़ावत/ वरना जिसे सफलता-असफलता कहते हैं/ वह सब तो बस हस्ताक्षर हैं/ किए गए उस संधि-पत्र पर/ जिसे व्यवस्थाएँ प्रस्तुत करती रहतीं/ हम सबके आगे। (पृ.15) जिस रचनाकार की विचारधारा और चिंतन में सुविधा से उत्पन्न दुविधा नहीं होती है, उनकी रचना में अनुस्यूत विचारों में भी अस्पष्टता नहीं होती। इसलिए यह अकारण नहीं है कि सफलता के आवेग और असफलता की उदासी में गर्क होने के स्थान पर वे सफलता और असफलता के मानक को लेकर चिंतन करते हैं और पाते हैं कि ये चीजें तोबस हस्ताक्षर हैं/ किए गए उस संधि-पत्र पर/ जिसे व्यवस्थाएँ प्रस्तुत करती रहतीं/ हम सबके आगे।’’

जिनकी आस्था, मूल्य और विश्वास व्यवस्था प्रदत्त सफलता-असफलता के मानक से संचालित होते हैं औरपल-पल परवर्तित प्रकृति वेश की तरह जिनके विचार और व्यवहार परिवर्तित होते हैं, वे व्यक्तिगत लाभ-लोभ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करते। ऐसे लोगों का कृत्य कवि की नज़रों से अलक्षित नहीं रहता, ‘क्षण में लघु, क्षण में विराट होने का गुर जिनको आता है/ ऐसे कई महावीरों को/ अपने युग में कितना कायर होते देखा है!’ (पृ.16) यह कविता अवसर के अनुकूल विचार और व्यवहार में तत्काल परिवर्तन कर लेने में माहिर उन महावीरों के अंतःकरण तक पैठने का यत्न करती है, जिनकी सारी वीरता अंततः कायरता बनकर रह जाती है। कवि को अपनी लघुता का अहसास है, इसलिए वे अपने मन में किसी तरह के लघुता-बोध को लाए बिना कहते हैं, ‘मैं अपनी लघुता में जैसा भी-जो भी हूँ/ उतने ही का साक्षात्कार मुझे करना है/ उतने में ही देना है अवकाश मुझे उन सबको भी/ जो निरवधि काल, विपुल पृथिवी पर/ अपनी-अपनी लघुताओं में/ मेरे ही समानधर्मा हैं। (पृ.वही) कवि की यह विनम्रता विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करती है-वह अपनी लघुता में जैसा भी जो है, उतने का ही साक्षात्कार करने की आकांक्षा व्यक्त करता है और लघुता के संदर्भ में अपने समानधर्माओं को अवकाश देने की बात करता है। जब न्यूनतम मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करना/रखना सामयिक चलन के विरुद्ध हो, जब सफलता की राह में आने वाले को क्रूरतापूर्वक हटा देना ही व्यवहारिकता की शर्त हो, तब अपनी लघुता का अहसास और अपने समानधर्माओं को अवकाश की बात अविश्वसनीय-सा लगता हुआ सच प्रतीत होता है! जिसकी अभिव्यक्ति और विश्वसनीय अनुभूति राजेन्द्र कुमार के कवि-कर्म की दुर्लभ विशिष्टता है।

इस कविता-संग्रह की एक लंबी कविता हैआईना-द्रोह जिसका विस्तार शाब्दिक स्तर पर तीन खंडों में है, लेकिन वैचारिक स्तर पर इसका विस्तार काफी बड़ा है। पहले खंडहाँ-नहीं की शुरुआत ही तत्काल ध्यान आकर्षित करती है, ‘सबके अपने-अपने हां-हां/ सबके अपने नहीं-नहीं/ तना-तनी में कभी कहीं/ तो सांठ-गांठ में कभी कहीं (पृ.18) मनुष्य किसी लोभ या भय से प्रायः सच को सच कहने से बचने की कोशिश करता है, लेकिन यह आईने की मज़बूरी नहीं है। उसूलों पर अड़ना और अधिकारों के लिए लड़ना इनसान भूल सकता है, लेकिन, ‘आईना अपने परावर्तन-धर्म पर अड़ा था। (पृ.29) इस संग्रह में कवि ने आईना ही नहीं, अन्य चिर-परिचित बिंबों को भी झाड़-पोंछकर कुछ इस तरह पुनर्जीवित किया है कि पाठक सम्मोहित-सा हो जाता है। उनकी कविता में एक भी शब्द फालतू नहीं है, एक भी बिंब कहीं अनावश्यक प्रतीत होते हैं...औऱ ऊपर से बिंब के रूप में चिर-परिचित आईने का प्रयोग। अपनी काव्य-कला से वे आईने के द्रोह का जो वर्णन करते हैं, उसे पढ़ते हुए मुझे शमशेर और ग़ालिब याद आए। चचा ग़ालिब कहते हैं, ‘आईनाख़ाने में कोई लिये जाता है मुझे तो शमशेर कहते हैं, ‘मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं तो यह जो आईना-द्रोह है, वह द्रोह आईने का तो ख़ैर क्या है, दरअसल वह कवि का द्रोह है।

लक्ष्य के प्रति एकाग्रता और सिद्धहस्तता को बताने के लिए प्रायः गुरु द्रोण के उस प्रयोग की चर्चा होती है, जिसमें धनुर्धर अर्जुन कोचिड़िया की सिर्फ आँख दिखाई देती है। लेकिन चिड़िया की आँख पर ध्यान केंद्रित करने वाली अर्जुन की जो दृष्टि है, उस दृष्टि को एक कवि की आंख की किस दृष्टि से देखती है, ‘कोई भी आँख सिर्फ़ आँख नहीं होती/ होती है पूरी की पूरी-एक दुनिया-भरी-पूरी.../ कि सपने हर आँख की आत्मा होते हैं/ कोई भी तीर/ जिन्हें बेध नहीं सकता। (पृ.38) गुरु होकर भी आँख रूपी इस पूरी की पूरी दुनिया को द्रोण देख पाता है, अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित अर्जुन। वह चिड़िया की महज आँख-भर देख सकता है, वह यह देख ही नहीं सकता कि आँख महज आँख ही नहीं होती, जिनकी आत्मा में स्वप्न होते हैं, करुणा होती है और पूरी कायनात होती है। आँख की भरी-पूरी दुनिया को सिर्फ़ एक कवि ही देख सकता है, चाहे वह राजेन्द्र कुमार हों या क्रौंच-वध को देखकर करुणार्द्र होकर विचलित और विगलित होने वाले आदिकवि वाल्मीक। कवि की तरह अर्जुन यदि आँख को इस तरह देख पाते तो कुरुक्षेत्र की तरह शायद यहां भी करुणार्द्र होकर अपना धनुष रख देते, ‘सचमुच देख रहे होते अगर तुम मेरी आँख/ तो तुम्हारे हाथ जरूर काँपते/ संस्रता ज़रूर तुम्हारा धनुष। (पृ.वही)

शमशेर ने लिखा है कि कवि घंघोल देता है। कवि राजेन्द्र कुमार दिमाग में खचित पूर्व बिंबो और प्रतीकों को घंघोल देते हैं और उसके बाद नया रचकर जो प्रस्तुत करते हैं वह अनुभव और चिंतन दोनों के आकाश को कुछ बड़ा कर जाता है।परदे पर/की बात करते हुए वे कहते हैं, ‘जहाँ हमारा उपयोग/ किसी बेबसी को छिपाने के लिए हो/ किसी बेरोक दिखावे के लिए। और इस कविता में पर्दे की आवाज़ तो सुनिये, ‘जहाँ हम गिरें, तो कुछ ओझल हो/ जहाँ हम उठें, तो कुछ परिवर्तित हो। (पृ.46) पर्दाफाश होने पर भी यदि चीजें बदल नहीं पाती हैं, थोड़े समय के बाद लोग भूल जाते हैं, तो फिर पर्दादारी पर किसी और को हो हो कवि को शक ज़रूर होता है, ‘बेख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब/ कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है। क्या यह महज संयोग है कि राजेन्द्र जी की कविताओं से गुज़रते हुए भारतीय कविता की पूरी परंपरा की याद आने लगती है? इसके विपरीत समकालीन परिदृश्य में सक्रिय अधिकांश नामचीन कवियों की कविताओं से गुजरते हुए भारतीय काव्य-परंपरा की याद बहुत कम आती है। यहां तक कि जीवन के सच के नाम पर पर कई बार उनके अध्ययन का सच सामने आता है और जो जीवन उसमें चित्रित होता है, वह पाठकों के जीवनानुभवों का हिस्सा नहीं बन पाता।

इस संग्रह की कविताओं को तीन खंडों में विभाजित किया है-‘हर कोशिश है एक बग़ावत, ‘कविता का सवाल औरकविता के किरदार में। प्रवृत्ति के अनुरूप कविता का सवाल खंड में उनकी प्रश्नपरक कविताओं को रखा गया है, जिसमें सन्निहित प्रश्न उसी तरह की असुविधा पैदा करते हैं, जिस तरह कबीर की कविता करती है। धर्म के रास्ते में मनुष्यता और सामाजिकता को हाशिये पर धकेल दिया जाता और धर्म के अलंबरदार अपने हिसाब से समाज और मानवता की व्याख्या करने लगते हैं, लेकिन कविधरम का रास्ता में प्रश्नपरक अवरोध पैदा करने से नहीं चूकते, ‘इस पर चलना पुण्य है/ इसका इतिहास जानने की कोशिश करना पाप/ समझदार लोग इस पर चलते हैं/ तो प्रश्न नहीं करते, सिर्फ़ जै-जैकार करते हैं। (पृ.117) कहना होगा कि धर्म के रक्षक/उपदेशक प्रश्न का स्वागत करते हैं, इतिहास जानने की उत्कंठा का। जबकि कवि किसी भी चीज को आलोचनात्मक तरीके से ही नहीं देखता, बल्कि उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखता है। इसलिएइस साल भी यह देखकर वह कुछ उदास होता है, ‘स्त्री कुछ और स्त्री हुई/ पुरुष कुछ और पुरुष/ हिंदू कुछ और हिंदू हुए/ मुसलमान कुछ और मुसलमान/ नहीं हुआ तो सिर्फ़/ आदमी ही नहीं हुआ कुछ और आदमी। (पृ.115)

नागार्जुन को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि वही एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने नेताओं और साहित्यकारों पर सबसे ज़्यादा कविताएँ लिखी हैं। नागार्जुन सरापा कवि थे और वे किसी भी चीज़ पर अद्भुत कविता लिख सकते थे। लेकिन राजेन्द्र कुमार जैसे आत्मसंकोची कवि ने भीकविता के किरदार को खूब पहचाना है और उन्होंने भगत सिंह, बहादुरशाह जफ़र, ओसामा बिन लादेन, सामंता स्मिथ, अतंरिक्ष यात्री राकेश शर्मा, विनायक सेन, जॉर्ज बुश, निराला, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और नागार्जुन को विषय बनाकर बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं! नागार्जुन की एक कवितासिंदूर तिलकित भाल की ज़मीन पर उनकी एक मार्मिक कविता है, ‘काव्य-तिलकित भाल नागार्जुन, तुम्हारा/ चेतना को दीप्त करता है हमारी। (पृ.173) इसी तरह अज्ञेय पर लिखी कविताज्ञेय-अज्ञेय में वे कहते हैं, ‘वह अकेलापन/ जिसे तुमने वरा/ अकेला कर पाया तुम्हें..., / निजता पा गई विस्तार (पृ.172) साहित्यकारों पर लिखी कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने दूसरे क्षेत्रों से जुड़े जिन व्यक्तित्वों को अपनीकविता का किरदार बनाया है, उनके जीवन के मार्मिक पक्षों को भी उसी तादात्म्य और के साथ चित्रित किया है। कविता के प्रकाशन के मामले में प्रो. राजेन्द्र कुमार आत्मसंकोच के शिकार अवश्य हैं, लेकिन मनुष्य से शतधा आबद्ध हैं। 

बहुतेरे लोग प्रो. राजेन्द्र कुमार को एक विद्वान आलोचक-प्राध्यापक और संपादक के रूप में ज़्यादा जानते हैं, इस अनुपात में एक कवि के रूप में शायद कम। इस अति आत्म-प्रकाशन के दौर में कवि का ऐसा आत्मसंकोच विरल है। ऐसे में कवि-समाज और रसिक-समाज का यह दायित्व बनता है कि वह अपनी भाषा के प्रतिबद्ध कवियों को ढूंढे, पढ़े और उचित मूल्यांकन का प्रयत्न करे। इस कविता-संग्रह में कवि और कविता दोनों मेंलाउडनेस से सायास बचने की चेष्टा दिखाई देती है, लेकिन कविता जो बात बोलती है वह बहुत ध्यान/प्रेम से सुनने की मांग करती है। मुझे उम्मीद है कि उनकी कविताएँ व्यापक हिदीं समाज को केवल अपनी ओर आकर्षित करेगी, बल्कि हिंदी कविता की ताकत और संघर्षधर्मी सौंदर्य से भी परिचित कराएगी।

पंकज पराशर

--असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़-202002 (.प्र.) फोन-9634282886

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